चलते चलते उस मुक़ाम पर आ पहुँची हुँ
जहाँ तेरी किरण सी नज़र आने लगी है
एक आशा सी बंध गई है एक उम्मगं सी जग गई है
सपनो की बातें सच मे बदलने लगी हैं,
तेरे तक पहुँचने की एक डोर सी मिल गई है,
डरती हुँ कहीं,
ऐसा ना हो बीच मे ही टूट जाए ये डोर
आ जाए जिदंगी मे कोई ऐसा मोड़
फिर दलदल मे फँस जाऊँ
इस माया मे जकड़ जाऊँ
भूल जाऊँ ,मैं कौन हुँ ,कियुं आई हुँ
कहाँ जाना है।
अब तो बस ऐक ही लगन है,
तेरे तक पहुँच पाऊँ,
इस आवागमन से दूर कही दूर
तेरी ज्योति मे मिल जाऊँ।
----मधुर---------
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