Thursday, April 23, 2015

पापा की याद मे

   
कितना अच्छा होता हमने उनको देखा होता
कुछ पल उनकी नरम गोद मे बिताये होते
उनके अधरों का चुम्बन लिया होता
मगर ऐसा नसीब ही कहां था।
न जाने कयों उनकी याद में आँखे भर उठती हैं
जिनको हम ने कभी देखा भी नहीं
बरसों बीते उनको देह छोड़े हुये
फिर भी न जाने कयों अाज भी
उनको ढूँढती हुँ हर इन्सान में हर शैह में
आसमान पर में उभरी अाकृतियों में
और ढूँढती हुँ उन की ख़ुशबु को
हर बगिया के फूलों में 
जो छोड़ गये हैं यहीं कहीं ।
न जाने कयों मन चुपके चुपके 
रोता है सिसकी भी भरता है उनकी याद में।
--------मधुर

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