
शाम का समय
सूरज ढल चुका है
बदली सी छा गई है,
मूँद कर आँखे हम
बैठे हैं अपने ही बग़ीचे में
देखते ही देखते
बारीश की एक नन्ही
फुहार आ गई
इन बुंदो की छम छम में लगा
श्याम बाँसुरी बजा रहे हैं
हम बन के गोपी
ठुमका लगा रहे हैं
बाँसुरी की धुन मे ताल
मिला रहे हैं ,
हुई बंद बारीश , खोली आँखे
तो देखा हम अकेले ही
गुन गुन रहे हैं।
सूरज ढल चुका है
बदली सी छा गई है,
मूँद कर आँखे हम
बैठे हैं अपने ही बग़ीचे में
देखते ही देखते
बारीश की एक नन्ही
फुहार आ गई
इन बुंदो की छम छम में लगा
श्याम बाँसुरी बजा रहे हैं
हम बन के गोपी
ठुमका लगा रहे हैं
बाँसुरी की धुन मे ताल
मिला रहे हैं ,
हुई बंद बारीश , खोली आँखे
तो देखा हम अकेले ही
गुन गुन रहे हैं।
------मधुर-------
No comments:
Post a Comment